"कोरोना जिहाद" के नाम पर फ़िर निशाने पर "मुसलमान"
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में यह अध्याय निश्चित रूप से लिखा जाएगा कि देश में एक समय ऐसा भी था जब हर समस्या को मीडिया उस समस्या के मूल कारकों के बजाय सांप्रदायिक स्वरूप में पेश करने का जघन्य अपराध किया करता था। यह भी लिखा जाएगा की मीडिया हाउस में बैठे ज्यादातर पत्रकारों की कलम बिक चुकी थी और वह वही लिख रही थी जो उससे लिखवाया जाता था या प्रचारित करवाया जाता था। ताजा उदाहरण निजामुद्दीन दिल्ली के तबलीगी जमात मरकज़ का है जहां तकरीबन पंद्रह सौ लोगों के इकट्ठा होने का है, जिसे मीडिया ने "कोरोना जिहाद"के नाम से प्रचारित कर इस संक्रमण के फैलाव का सारा दोष इन मुसलमानों पर मढ़ दिया है। इस विषय में जिस तरह से टीवी पर बहस चल रही है उनमें इस पक्ष को अधिक उभारा जा रहा है जैसे पूरे देश में कोरोना का संक्रमण इन्ही मुसलमानों की वजह से फैला है। शासन- प्रशासन की लापरवाही पर जरा भी चर्चा नहीं की जा रही है। पुलिस की भूमिका पर बिल्कुल बात नहीं हो रही है। जबकि इस मरकज़ की दीवार से लगी हुई पुलिसचौकी है जहां मरकज प्रमुख ने इस आयोजन की लिखित सूचना दी थीउसके बाद ही 13 और 14 मार्च को हज़ारों लोग इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने देश- विदेश से इकट्ठा हुए । यहां ये बात ग़ौर करने लायक है की सरकार ने विदेश से आने वाले जमात के लोगों की एयरपोर्ट पर न तो कोई स्क्रीनिंग की ना ही किसी प्रकार की जांच की, क्योंकि प्रशासन निश्चिंत था। निश्चिंत होने का कारण यह था कि 13 मार्च को ही देश के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा था कि देश को कोरोना से कोई खतरा नहीं है। इसी के चलते सिर्फ मरकज़ में नहीं बल्कि पूरे देश में धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रम यथावत चलते रहे थे। इसका उदाहरण यह है कि 16 मार्च तक मुंबई का सिद्धिविनायक मंदिर खुला था और उज्जैन का महाकाल मंदिर भी खुला हुआ था। 17 मार्च तक शिर्डी का साईं मंदिर और शिंगणापुर का शनि मंदिर भी खुला था और वहां श्रद्धालुओं की भीड़ लग रही थी। 18 मार्च तक वैष्णो माता मंदिर और 20 मार्च तक काशी विश्वनाथ का मंदिर में भी खूब श्रद्धालु आ जा रहे थे। यह भी याद रखें कि जनवरी और फरवरी के महीने में प्रधानमंत्री ने अपने ट्वीट के जरिए जनता को आश्वस्त किया था कि कोरोना से भारत को कोई खतरा नहीं है जबकि राहुल गांधी लगातार कोरोना के खतरे पर ट्वीट कर सरकार को आगाह कर रहे थे लेकिन सरकार के लोग राहुल गांधी की बात का मजाक बनाकर आरोप लगा रहे थे कि वे देश की अर्थव्यवस्था से डरा रहे हैं । प्रधानमंत्री जो 2 महीने से यह कह रहे थे कि भारत को डरने की आवश्यकता नहीं है वह 19 मार्च को अचानक सोशल डिस्टेंसिंग की बात करने लगते हैं और जनता कर्फ्यू का आह्वान करते हैं। उसके बाद 21 दिन का लॉकडाउन करने की घोषणा करते हैं। वे अपनी इस घोषणा में साफतौर पर जनता से अपील करते हैं कि जो जहाँ है वहीं ठहरा रहे। ऐसे में जमात के वे 1500 लोग जो मरकज़ से अपने घरों को रवाना नहीं हो पाए थे उन्होंने प्रधानमंत्री की अपील को मानते हुए मरकज़ में ही रुके रहने का निर्णय किया। जमात की तरफ से इस विषय में पुलिस को पत्र लिखकर अवगत भी कराया गया। क्षैत्रीय एसडीएम को भी पत्र लिख कर यह गुजारिश की गई कि जो लोग अपने निजी वाहनों से कार्यक्रम में शिरकत करने आये थे, उन्हें उनके वाहनों से वापस लौटने की अनुमति दी जाए लेकिन पुलिस- प्रशासन ने उस पत्र को नजरअंदाज कर दिया। फिर प्रशासन ने अचानक मर्कज़ पर छापेमारी जैसी कार्रवाई की। वहां से लोगों को अस्पताल ले जाया गया और जांच करवाई गई। जैसे ही कुछ लोगों के रिजल्ट पॉजिटिव आने शुरू हुए ,मीडिया ने इसे "कोरोना जिहाद" का नाम देकर पूरी बहस को एक नया रुख दे दिया
ध्यान रहे लॉकडाउन के बाद दिल्ली के बाद अचानक दिल्ली से उत्तर प्रदेश, बिहार व अन्य राज्यों के तरफ कूच करने वाले गरीब लोगों की हालत पर जो ग्राउंड रिकॉर्डिंग हो रही थी उससे सरकार की बहुत किरकिरी हो रही थी। ऐसे में मरकज़ से मिले मुस्लिम मरीज सरकार के लिए एक कवच के रूप में सामने आ गए क्योंकि मीडिया ने पलायन करने वाले लोगों की समस्या को छोड़कर मरकज़ को अपने निशाने पर ले लिया । पत्रकारों ने शासन- प्रशासन की खामियों और कमियों पर चर्चा करना ही मुनासिब नहीं समझा। यह बात निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है और इसके दुष्परिणाम आने वाले समय में विकराल रूप में दिखाई देंगे।
मुसलमानों को कोरोना के बहाने इस तरह बदनाम करने वाले मीडिया को यह भी याद रखना चाहिए कि देश में फैलती इस महामारी के मद्देनज़र मुस्लिम समुदाय ने रमज़ान से पहले ही ज़कात निकाल कर सभी समाज के गरीब लोगों की मदद करना शुरू कर दी थी,जो अब भी जारी है।
ऐसे में इस बिकाऊ मीडिया से ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि जो धार्मिक समुदाय राष्ट्र के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए सरकार से पहले आकर अन्य समुदायों के लिए भी समस्याग्रस्त इलाक़े में जाकर लोगों की मदद करने में पेश-पेश रहते हैं , उनको कैसे ग़ैरज़िम्मेदार बताया जा सकता है।
क्या इस तरह कोरोना को फैलाने का सारा दोष मुसलमानों के सर मढ़कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से लोगों का ध्यान हटाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल तो नहीं कर रही है?
यकीनन इन सबका जवाब जग-ज़ाहिर होगा. ऐसे मुश्किल दौर में इस महामारी की जाति तय कर उसे जिहाद का नाम देना कितना सही?.